Yoddha Sannyasi Vivekanand: योद्धा संन्यासी विवेकानन्द
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- Synopsis
- विवेकानंद कहते है : "मेरे मत में बाह्य जगत की एक सत्ता -हमारे मन के विचार के बाहर भी उसका एक अस्तित्व है । चैतन्य के क्रम विकास रूपी महान विधान का अनुवर्ती होकर यह समग्र विश्व उन्नति के पथ क्रम विकास रूपी महान विधान का अनुवर्ती होकर यह समग्र विश्व उन्नति के पथ पर अग्रसर हो रहा है । चैतन्य का यह क्रम विकास जड़ के क्रमविकास से पृथक है । विवेकानंद ने पहली बार क्रमविकास का सिद्धान्त भारतीय दर्शन पर लागू किया और अद्वैत की धर्म शास्त्र की चरम सीमा बताया । हमारे देश के उभरते हुए पूंजीपति वर्ग को इस विदेशी आक्रमण से अपनी सांस्कृतिक परम्पराओ की रक्षा करनी थी , क्योकि राष्ट्रीयता का विकास उन्हीं के आधार पर संभव था और राजनितिक लड़ाई भी उन्हीं के आधार पड़ लड़ी जा सकती थी । विवेकानंद ने धर्म- सभा में आक्रामक रुख अपनाकर मिशनरियों के इस दावे को झुठलाया कि ईसाई धर्म चूँकि विजेताओं का और समृद्धि का धर्म है, इसलिए यह सच्चा धर्म है और इसी को विश्व धर्म बनना है । विवेकानंद जी ने 1905 में स्वदेशी आंदोलन का राजनितिक रूप धारण किया । इसमें जो राष्ट्रीय एकता का जो प्रदर्शन हुआ उसके कारण ब्रिटिश सरकार को बंग- भंग की योजना रद्द करनी पड़ी । और इसी आंदोलन से स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा तथा स्वराज्य का चारसूत्री कार्यक्रम निर्धारित हुआ । इसके अलावा 1908 से क्रांति के जो गुप्त संगठन बने उनकी मुख्य प्रेणना भी विवेकानंद जी की शिक्षाए थी ।
- Copyright:
- 2018
Book Details
- Book Quality:
- Excellent
- Book Size:
- 204 Pages
- ISBN-13:
- 9788186265109
- Publisher:
- Rajpal and sons
- Date of Addition:
- 02/26/21
- Copyrighted By:
- Hansraj Rahbar
- Adult content:
- No
- Language:
- Hindi
- Has Image Descriptions:
- Yes
- Categories:
- Nonfiction
- Submitted By:
- Bookshare Staff
- Usage Restrictions:
- This is a copyrighted book.